De-Dollarization: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार ब्रिक्स देशों पर दवाब बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ब्रिक्स समूह के देशों ने भी अमेरिका को करारा जवाब दिया है। क्या ट्रंप की यह रणनीति डॉलर के प्रभाव को कमजोर कर सकती है। क्या यह जियो पॉलिटिक्स में बदलाव बदलाव लाएगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (US President Donald Trump) खुद को सबसे बड़ा डील मेकर मानते हैं। वह अमेरिकी जनता को एहसास दिलाना चाहते हैं कि वह टैरिफ के जरिए दुनिया को झुका सकते हैं और अमेरिकी हित की बातें मनवा सकते हैं। लिहाजा, उन्होंने एक एक करके दुनिया के कई देशों पर टैरिफ लगाया, लेकिन ट्रंप की नजर सबसे अधिक जिस समूह पर है। वह बिक्स देशों का समहू है। इसमें भारत, चीन, रूस, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील समेत कई देश हैं।
जहां अमेरिका ने रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद रूस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया है, तो वहीं भारत पर रूस संग व्यापारिक रिश्ते रखने पर भारी भरकम टैरिफ लगाने का ऐलान किया। इसके कारण, भारत, चीन जो बीते सालों में अपनी आपसी मतभेदों की वजह से अलग-थलग दिखते थे, अब एक साथ मिलकर अमेरिका को चुनौती देने का काम कर रहे हैं। यह सिर्फ कूटनीतिक कदम भर नहीं है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को बदलने वाला निर्णायक परिवर्तन हो सकता है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ लिखी जाने लगी ‘डी-डॉलराइजेशन’ की कहानी
साल 2022 की फरवरी महीने में रूस ने यूक्रेन पर जब हमला किया तो पश्चिमी देशों ने रूस के लगभग 300 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार को जब्त कर लिया। पश्चिमी देशों के इस कदम से विकासशील देशों को बड़ा झटका लगा था। इसके बाद ब्रिक्स समूह को एहसास हुआ कि पश्चिमी देशों में उनकी संपत्तियां सुरक्षित नहीं हैं। समूह ने अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने की मुहिम, यानी ‘डी-डॉलराइजेशन’, को तेज कर दिया।
साल 2024 में रूस के कजान में आयोजित बिक्स के 16वें शिखर सम्मेलन में एक नई साझा करंसी, जिसे “यूनिट” कहा जा रहा है, पर चर्चा हुई। इसका उद्देश्य वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को कम करना और आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देना है।
हालांकि, ब्राजील ने 2025 में अपनी ब्रिक्स अध्यक्षता के दौरान साझा करंसी पर जोर न देने का फैसला किया गया, लेकिन स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाने पर जोर दिया। इसके पीछे की मुख्य वजह ब्रिक्स देशों के बीच आर्थिक असमानता और भू-राजनीतिक तनाव माना गया। जिसके कारण ‘यूनिट’ को लेकर ब्रिक्स ने कुछ खास प्रगति हासिल नहीं की। रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कुछ दिन पहले भी ब्रिक्स देशों को स्थानीय मुद्राओं में व्यापार करने की सलाह दी थी।
यदि ब्रिक्स जैसे बड़े आर्थिक समूह, जिसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और अब मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे नए सदस्य भी शामिल हैं, डॉलर में व्यापार करना बंद कर देते हैं। इससे डॉलर की वैश्विक मांग में बड़ी कमी आ सकती है। इससे डॉलर का मूल्य गिर सकता है। जिसके कारण अमेरिका के वैश्विक दबदबा में भारी कमी आएगी।
डी-डॉलराइजेशन को लेकर अब तक क्या-क्या हुआ
भारत और रूस के बीच कारोबार रुपये में हो रहा है, जबकि चीन और रूस रूबल और युआन में कारोबार कर रहे हैं। ब्रिक्स ने अपनी न्यू डेवलपमेंट बैंक और BRICS पे जैसे सिस्टम को मजबूत करने की दिशा में तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। ताकि SWIFT जैसे पश्चिमी वित्तीय तंत्र से बचा जा सके, लेकिन जानकारों का कहना है कि डॉलर का दबदबा जल्द खत्म नहीं हो सकता है। जानकारों का मानना है कि डॉलर अभी भी वैश्विक व्यापार का 80% हिस्सा संभालता है। फिर भी, BRICS वैश्विक अर्थव्यवस्था को और समावेशी बनाने की दिशा में तेज से बढ़ रहा है।
कब हुआ डॉलर वैश्विक मुद्रा रिजर्व के रूप में स्थापित?
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साल 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौते ने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक रिजर्व मुद्रा के रूप में स्थापित किया। यह समझौता डॉलर को सोने से जोड़ता था और अन्य मुद्राएं, डॉलर से जुड़ी थीं, लेकिन 1971 में अमेरिका ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया, फिर भी इसकी वैश्विक मांग बनी रही। आज, वैश्विक व्यापार का लगभग 88% हिस्सा डॉलर में होता है, और 60% से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर में रखे जाते हैं। SWIFT जैसे भुगतान तंत्रों में भी डॉलर का दबदबा है।